Human Rights Council Resolution की बैठक में चर्चा इस बात पर हो रही थी की एक स्वतंत्र जांच आयोग बिठाया जाये जो यह जांच कर सके की इजराइल ने कौन कौन से अंतराष्ट्रीय कानूनों का उलंघन किया हैं | इस Resolution के तीन पक्ष थे एक वो जो इस Resolution के समर्थन में थे या यू कहे जो फिलिस्तीन के समर्थन में थे, दूसरे वो जो इस Resolution के विरोध में थे या यू कहे जो इजराइल के समर्थन में थे और तीसरा पक्ष था जो न किसी के विरोध में था न समर्थन में | तीसरे पक्ष के 14 देश थे जिन्होंने किसी भी पक्ष में मतदान नहीं किया | इन 14 देशो के फैसले से इजराइल खुद को ठगा महसूस कर रहा है | उसकी अपेक्षाएं भारत से थी कि भारत उसके पक्ष में फैसला देगा परन्तु भारत ने भी इजराइल को निराश किया | और फिलिस्तीन ने भी भारत के फैसले पर नाराज़गी जाहिर की हैं | इसे कहते हैं " दुविधा में दोनों गए न माया मिली न राम " क्यूंकी भारत का रवैया कुछ इसी प्रकार का देखने को मिला जिसमे वो अपने किसी भी निर्णय में स्पष्ट नहीं हैं और यह अस्पस्टता दूसरे देशो के विदेश मंत्री को साफ़ दिखाई देती हैं |
इस Resolution को अपनाया गया क्यूंकि इसके समर्थन में 24 देशो ने मतदान किया जबकि केवल 9 देशो ने ही इस Resolution का विरोध किया | यदि भारत और तमाम ऐसे देश जिन्होंने मतदान से परहेज किया, अपना मतदान इजराइल के समर्थन में करते तब भी इजराइल एक मत से हार जाता | तो विदेश नीति यही कहती हैं की जब आपका मित्र हारेगा यह आपको ज्ञात हो तो मतदान न करना ही बुद्धिमानी हैं | लेकिन यह अस्पष्टता ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती आप दोनों नाओ में बहुत देर तक सवारी नहीं कर सकते या तो पांडवो के पक्ष में जाओं या कौरवो के या फिर विदुर नीति अपनाओ |
मेरे विचार से भारत का सच्चा दोस्त इजराइल है जिसने हर संकट की घडी में भारत की मदद की, फिर चाहे भारत ने इजराइल की मदद करना अपनी जिम्मेदारी समझा हो या नहीं | अंत में यही कहूंगा भारत अब अपनी पुरानी नीतियों के दम पर आगे नहीं बढ़ सकता उसे अपनी विदेश नीति में रिफॉर्म्स लाने की जरूरत हैं |
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